भारतीय संस्कृति और सभ्यता Bharatiy Sanskrit
जैवी शक्तिर्मधुरमधुरा भौतिकी चातिकट्वी,
तत्संयोगाद्भवति हृदयं प्राणिषु द्वैतरुपम।
तत्कालुष्यं शरदिव विभज्याम्भसः प्रीयते या,
तां कल्याणीं निजहृदि भजे संस्कृतिंं भारतीयाम्।।
संस्कृति का अर्थ एवं परिभाषा
संस्कृति शब्द सम् उपसर्गपूर्वक √कृ धातु से क्तिन् प्रत्यय के योग से सम्पन्न हुआ है जिसका अर्थ है उत्तम प्रकार से किये गये कार्य या सम्यक् स्थिति। अर्थात् "संस्क्रियते अनया सा संस्कृति" इस व्युत्पत्ति के आधार पर जिस जीवन पद्धति से आत्मा सुसंस्कृत होकर पूर्ण विकसित हो और उसके अन्त: से राग-द्वेष, मोह-मत्सर आदि विकार निर्मूल होकर वह सम्पूर्ण गुण-सम्पन्न एवं प्रकाशमय हो, वहीं संस्कृति है। इस दृष्टि से संस्कृति न केवल मानव के भौतिक एवं लौकिक जीवन को समृद्ध तथा सुखद बनाती है अपितु उसके आध्यात्मिक एवं पारलौकिक जीवन को भी प्रशान्त एवं आनन्दमय बनाने में प्रकाश स्तभ का कार्य करती है ।दूसरे शब्दों में ,मानव के बाह्य एवं आन्तरिक स्थितियों के सुसंस्कृत या परिष्कृत रूप को संस्कृति कहा जाता है। इन बाह्य एवं आन्तरिक स्थितियों में मानव के विचार, भावनाएं, परम्पराएं, कल्पनाएं, चेष्टाएं, आदर्श आदि बातें सन्निहित है। इस प्रकार हम कह सकते है कि संस्कृति का सम्बन्ध मानव जीवन के प्रत्येक पक्ष से है।
संस्कारजन्मा संस्कृति अर्थात् जिसमें संस्कारों का योगदान हो , उसे ही हम संस्कृति कह सकते है। ये संस्कार परम्परागत होने के कारण पीढी दर पीढी मानव को प्राप्त होते रहते हैं। नरविज्ञानवेत्ता 'Biolagist' के शब्दोंं में, "संस्कृति सब सीखा हुआ व्यवहार होता है।"
विभिन्न विद्वानों ने संस्कृति की परिभाषा अपने अपने ढ़ग से प्रस्तुत की है । छान्दोग्योपनिषद में समाज के सम्भेदों को घटित करने का हेतु संस्कृति को ही बताया है -
सेतुर्विधृतिरेषा लोकानामसम्भेदाय। छान्द०8/4/1
डॉ. सम्पूर्णानन्द के मतानुसार- "संस्कृति उसे कहते है, जिससे कोई समुदाय विशेष जीवन की विविध समस्याओं पर दृष्टिपात करता हो।"काका कालेलकर के शब्दों में- "संस्कृति उसे कहते हैं जिसे हजारों लाखों बर्षों के पुरुषार्थ से मनुष्य जाति ने अर्जित किया है । वस्तुतः संस्कृति विभिन्न युगों में अर्जित सम्पत्ति है।"
राजगोपालाचार्य के अनुसार - "किसी भी जाति अथवा राष्ट्र के शिष्ट पुरुषों के विचार, वाणी, एवं क्रिया का जो रुप व्याप्त रहता है, उसी का नाम संस्कृति है।"
डॉ. कन्हैयालाल माणिकलाल मुंशी के विचारानुसार - "संस्कृति जीवन की उन अवस्थाओं का नाम है, जो मनुष्य के अन्दर व्यवहार, ज्ञान और विवेक पैदा करती है। यह मनुष्यों के व्यवहारों को निश्चित करती है, उनकी संस्थाओं को संचालित करती है, उनके साहित्य और भाषा को बनाती है, उनके जीवन के आदर्श और सिद्धान्तों को प्रकाश देती है।"
डॉ. उपाध्याय ने संस्कृति की स्पष्ट व्याख्या करते हुए कहा है कि, " व्यक्ति के मनोभावों, विचारों और आदर्शों आदि का संस्कार संस्कृति कहलाता है।"
सभ्यता का अर्थ एवं परिभाषा -
सामान्यतः संस्कृति और सभ्यता एक-दूसरे के पर्याय माने जाते है,परन्तु वास्तविकता इससे भिन्न है। सभ्यता शब्द के मूल में सभ्य शब्द है, जो सभा शब्द में यत् प्रत्यय लगने से बना है । सभ्य का अर्थ होता है- समाज में रहकर सामाजिक कल्याण के लिए प्रयत्नशील रहने वाला व्यक्ति। इसी प्रकार सभ्य शब्द मेंं तल् प्रत्यय जोडकर स्त्रीलिंग में सभ्यता शब्द बनता है। जिसका अर्थ है सामाजिक नियमों एवं व्यवहारों को जानते हुए उनका सामाजिक हित में आचरण करना।
मक्कीवर और पैज के अनुसार सभ्यता से हमारा तात्पर्य उस संपूर्ण क्रिया विधि एवं संगठन से है जिसे मनुष्य ने अपने जीवन की दशाओं को नियंत्रित करने के उद्देश्य से निर्मित किया है यह सिर्फ सामाजिक संगठन की व्यवस्थाओं को शामिल नहीं करता बल्कि हमारे प्रवृत्तियों एवं भौतिक उपकरणों को भी शामिल करता है। सभ्यता मूलत: उन भौतिकवाद उपादानों से संबंद्ध होती है जिन्हें मनुष्य ने पर्यावरण से अपने जीवन को व्यवस्थित करने के लिए निर्मित किया है जैसे पंखा, कूलर आदि यह भौतिक सभ्यता के उदाहरण है।
मैकाइवर के शब्दों में, "मनुष्य ने अपने जीवन की दशाओं को नियंत्रित करने के प्रयास में जिस संपूर्ण कला विन्यास और संगठन की रचना की उसे संवारा है उसे सभ्यता कहते हैं।"
मनुष्य एक सामाजिक प्राणी है वह हमेशा चिंतनशील रहता है नए कार्य व्यापार नए-नए आविष्कार करता है अपनी त्रुटियों से सीखता है वह अपना निर्माता स्वयं है आदिकाल से ही मानव ने अपना भौतिक जीवन को सुखमय बनाने के लिए रहन-सहन के अच्छे तरीके अपनाए नए-नए साधन और उपकरण खोजें शिल्प ईजात किए कलाऐ सीखी, उनका विकास किया |यह सब प्रगति और विकास सभ्यता के अंतर्गत आता है ,
संस्कृति और सभ्यता
भारतीय संस्कृति और सभ्यता दोनों एक दूसरे के पूरक हैं सभ्यता बाह्य उपलब्धि है और संस्कृति आंतरिक। अर्थात् सभ्यता मनुष्य का शरीर है और संस्कृति उसकी आत्मा| मनुष्य ने अपने सुख साधन के लिए जो साधन निर्मित किये है वह सभ्यता है| इसमें मकान से लेकर महल तथा बैलगाड़ी से लेकर वायुयान है। मनुष्य केवल बाहरी सुख साधनों से संतुष्ट नहीं होता | वह मंगलमय जीवन मूल्यों को ग्रहण करना चाहता है, जिसमें दया, प्रेम, सहानुभूति और मंगल कामना हो | वह आत्मा का उदारीकरण और उन्नयन भी चाहता है और यही संस्कृति है ।
भारतीय संस्कृति और सभ्यता का संबंध किसी व्यक्ति या समाज के मानसिक व बौद्धिक विकास से जाना जा सकता है। मनुष्य पीढ़ी दर पीढ़ी सामाजिक बौद्धिक और आत्मिक विकास करता रहा है। उसमें विशिष्ट गुणों का समावेश होता रहा है, जिन्हें वह प्रसारित करता रहता है| यह गुण जातीय जीवन के अंग बन जाते हैं और संस्कारों के रूप में व्यक्ति या समाज की विरासत या सभ्यता बन जाते हैं। ऐसे संस्कारजन्य गुणों को संस्कृति कहा जाता है। इसके विकास में कई पीढ़ियां लगती हैं। संस्कृति जन्य गुणों का निर्माण हजारों साल में होता है । संस्कृति का प्रस्फुटन वाणी व्यवहार में, वस्त्र - आभूषण में, रीति-रिवाजों में, लोकचलन में, कला - स्थापत्य, देवी-देवताओं के प्रति प्रतिष्ठा, मनोरंजन, नृत्य - गीत आदि में प्रस्फुटित होता है। उसके सैकड़ों रंग है । सभ्यता से हमें मानव जीवन के विकास और उन्नत अवस्था का पता लगता है ,संस्कृति से जातीय गुणों, बौद्धिक और आत्मिक प्रगति का पता चलता है। भारत की सबसे पुरातन सभ्यता और संस्कृति की पहचान हमारी सिंधु घाटी सभ्यता से है ।
सिन्धु घाटी की सभ्यता और संस्कृति
हजारों साल पूर्व भारत में पहले भी एक विकसित भारतीय संस्कृति और सभ्यता, का निर्माण हो चुका था| यहां एक सुसंस्कृत समाज था| पूर्ण विकसित और संपन्न संस्कृति थी | सिंधु घाटी की प्राचीन सभ्यता के जो प्रतीक और अवशेष हड़प्पा मोहनजोदड़ो या अन्य स्थलों पर खुदाई में मिले हैं उनका अत्यधिक ऐतिहासिक और सांस्कृतिक महत्व है वह भारत की प्रथम सभ्यता और संस्कृति की एक अद्भुत गाथा कहते हैं। इस सभ्यता की खोज की कहानी विचित्र है | भारत में 18 57 की क्रांति से पूर्व विलियम वर्ड्स इस इलाके में ईस्ट इंडियन रेलवे बना रहा था, वह अपनी रेलवे लाइन के नीचे बिछाने के लिए हड़प्पा के पास एक ध्वस्त रेगिस्तान नगर से लाखों बेकार पड़ी बेशकीमती ईंटे उठाकर ले गया। भारतीय पुरातात्विक सर्वेक्षण के महानिदेशक जनरल कनिंघम को उस स्थल पर कुछ मुहरे और छोटी-छोटी वस्तुएं प्राप्त हुई, उस समय उन चीजों को महत्वपूर्ण तो समझा, लेकिन 1920 तक कुछ नहीं किया गया, इसी वर्ष सर जॉन मार्शल ने उन टीलों पर उत्खनन कार्य किया। सन 1922 में पुरातात्विक सर्वेक्षण के एक सदस्य आर डी बनर्जी ने वहां से 350 मील पश्चिम में उसी तरह के अन्य स्थल मोहनजोदड़ो की खोज की मार्शल ने भी इस काम में हाथ बढ़ाया बाद में मैक और फिर मार्टिन ह्वीलर ने कार्य जारी रखा।
इस उत्खनन कार्य में 2 महानगरों हड़प्पा और मोहनजोदड़ो के खंडहर मिले, जिसमें मजबूत दीवारों वाले दुर्ग थे| शोभायात्रा के चबूतरे और कृति द्वार थे | पकाई हुई ईंटों से बने सार्वजनिक भवन थे |
मोहनजोदड़ो में एक विशाल पक्का जलाशय मिला जिसके इर्द-गिर्द छायादार आंगन था जो शायद धर्म स्थान या शिक्षा स्थल हो सकता है | दुर्ग के नीचे वर्गाकार एक मिल में नगर फैला था | चौड़ी सड़कें, पक्के मकान, साफ सफाई से बनी नालियां, कूड़ा दान आज भी उन्नत सभ्यता और विकसित संस्कृति के चिन्ह है | मोहनजोदड़ो और हड़प्पा दोनों ही नगर एक आधुनिक अत्यंत उन्नत सफाई स्वास्थ्य के प्रति सचेत सभ्यता के परिचायक थे।
संस्कृति के प्रकार
संस्कृति दो प्रकार की मानी जाती है भौतिक संस्कृति और अभौतिक संस्कृति।भौतिक संस्कृति
भौतिक संस्कृति के अंतर्गत समाज की भौतिक उपलब्धियों को रखा जा सकता है | यह मूर्त होते हैं | इन्हें हम स्पर्श कर सकते हैं | देख सकते हैं | यह मनुष्य और मशीनों के द्वारा निर्मित होती हैं | जैसे वायुयान, घड़ी, वस्त्र, भवन, आदि | मनुष्य ने अपनी आवश्यकताओं के अनुसार अनेक उपादानों का आविष्कार किया है, यह सभी उपलब्धियां भौतिक संस्कृति के अंतर्गत आते हैं |
अभौतिक संस्कृति
अभौतिक संस्कृति वह संस्कृति है , जिसे हम स्पर्श नहीं कर सकते हैं एवं उसे देख नहीं सकते हैं | अभौतिक संस्कृति अमूर्त एवं व्यक्ति निष्ठ है | उदाहरण स्वरूप प्रथा, लोक- रीति, दार्शनिकता, विचारधारा, धर्म, सामाजिक मूल्य, कला-साहित्य, आदर्श इत्यादि अभौतिक संस्कृति के उदाहरण है | प्रत्येक समाज के कुछ आदर्श होते हैं , जिनकी ओर समाज अग्रसर होने का सदैव प्रयास करता है| सामाजिक नियम और मान्यताएं भी अभौतिक संस्कृति के अंतर्गत रखे जा सकती हैं|
लेस्ली ने भौतिक और अभौतिक संस्कृति को स्पष्ट करते हुए कहा है कि, आदर्शों मानदंडों मनोवृतियों विश्वासों एवं समाज के रिवाजों की व्यवस्था को अभौतिक संस्कृति कहा जाता है भौतिक संस्कृति से तात्पर्य संस्कृति की उपज या मानव कृति से है।
लेस्ली ने भौतिक और अभौतिक संस्कृति को स्पष्ट करते हुए कहा है कि, आदर्शों मानदंडों मनोवृतियों विश्वासों एवं समाज के रिवाजों की व्यवस्था को अभौतिक संस्कृति कहा जाता है भौतिक संस्कृति से तात्पर्य संस्कृति की उपज या मानव कृति से है।
संस्कृति के मूल तत्त्व या विशेषताएं
भारत की भूमि वीर प्रसवा होने से कहीं अधिक ज्ञानप्रसवा भी रही है, जिसने कालांतर में अपनी मुनिप्रज्ञा का प्रकाश पश्चिम और पूर्व , दक्षिण और उत्तर के देशों को दिया है और चारों ओर से आनंदमय तत्वों को विश्व की संस्कृति से चुनकर अपनी संस्कृति का हिरण्यमय पुट बुना है।यदि हम भारत के साहित्य का अनुशीलन करें तो यह स्पष्ट हो जाता है कि भारतीय संस्कृति का मूल आधार सर्वत्र एक ही है, वें हैं - सत्य, अहिंसा, दया, विश्वप्रेम, सदाचार आदि | किसी भी दर्शन, काव्य, नाटक, साहित्य का अनुशीलन करने से मस्तिष्क में केवल समान तत्व ही शेष रह जाते हैं | यही तत्व संस्कृति के मूल आधार हैं | भारतीय संस्कृति के दो पक्ष है आध्यात्मिक और लौकिक | आध्यात्मिक पक्ष निश्रेयस या मोक्ष को मुख्य लक्ष्य माना है तो लौकिक पक्ष में उन्नति को अपना लक्ष्य निर्धारित किया है | जिस बिंदु से इनका सृजन होता है उस बिंदु को धर्म कहा गया है| धर्म वह है, जो धारण करें अर्थात धर्म को धारण करने का प्रयोजन भी आत्म कल्याण एवं लोक कल्याण की भावना से जुड़ा हुआ है | भारतीय संस्कृति भी इसी प्रयोजन को लेकर अग्रसर होती है | भारतीय संस्कृति की विशेषताएं निम्नलिखित है
1. अध्यात्म की भावना- अध्यात्म की भावना भारतीय संस्कृति का प्राण है | पुनर्जन्म के सिद्धांत ने इस भावना को और अधिक बल दिया है इस विश्व की सृष्टि कैसे हुई ?आत्मा और परमात्मा का परस्पर संबंध क्या है? मृत्यु क्यों आती है ?तथा मृत्यु के पश्चात क्या होता है? आदि अनेक प्रश्न समय-समय पर हमारे मनीषियों एवं तत्वज्ञों द्वारा उपनिषदों एवं दर्शन ग्रंथों में उल्लिखित है | इस प्रवृत्ति के वशीभूत हो, हमारे देश में अद्वैत, द्वैताद्वैत, विशिष्टद्वैत आदि वादों का निरूपण हुआ है ।
2. आस्तिकता की भावना - भारतवासी प्राय: ईश्वर के अस्तित्व में आस्था रखने वाले हैं इस देश के निवासियों के आचार विचार खानपान एवं नित्य कर्मों के संपादन में ईश्वर का अस्तित्व झलकता है।
3. धर्म परायणता- भारतीय संस्कृति में धर्म का भी महत्वपूर्ण स्थान है हमारे ऋषि -मुनियों ने प्रत्येक व्यक्ति एवं सामाजिक अनुष्ठान को धर्म की सीमाओं में बांधकर रखा है | मनुष्य के विविध संस्कार सामाजिक कार्य शारीरिक एवं मानसिक उन्नति आदि सभी धर्म के अंग माने गए हैं | भारतीय संस्कृति में धर्म शब्द का प्रयोग अति विस्तृत एवं व्यापक अर्थ में किया गया है | मनीषियों ने धर्म की परिभाषा देते हुए कहा है-
यतोSभ्युदयनिःश्रेयस् सिद्धिः सः धर्मः। अर्थात जिससे उन्नति और कल्याण की सिद्धि होती है वह धर्म है।
4. अवतारवाद अवतारवाद की भावना- भारतीय संस्कृति की यह प्रमुख विशेषता मानी जाती है | ईश्वर के सगुण अस्तित्व में आस्था रखने वाले भारतीयों का यह दृढ़ विश्वास है कि संसार में धर्म की स्थापना, तथा अधर्म के विनाश के लिए समय-समय पर भगवान मनुष्य रूप में इस पृथ्वी पर अवतार लेते हैं श्रीमद्भागवत गीता में इसी का उल्लेख हुआ है-
यदा यदा ही धर्मस्य ग्लानिर्भवति भारत ।
अभ्युत्थानम धर्मस्य तदात्मानं सृजाम्यहम्।।
परित्राणाय साधुनांं विनाशाय च दुष्कृताम्।
धर्म संस्थापनार्थाय संभवामि युगे युगे।।गीता 4/7-8
धर्म की रक्षा तथा अधर्म के विनाश के लिए ईश्वर के मत्स्य, कुर्म, वराह, नरसिंह, वामन, परशुराम, राम, कृष्ण, बुद्ध और कल्कि यह 10 अवतार माने गए है।5. यज्ञ परायणता- भारतीय ऋषि मुनियों ने जनजीवन में यज्ञ को बहुत अधिक महत्व दिया है | हमारे भारतवर्ष में संस्कार एवं उत्सव आदि प्रत्येक अवसर पर यज्ञ ही किए जाते हैं | प्रत्येक हिंदू गृहस्थी के दैनिक कार्यों में पंच महायज्ञ - ब्रह्मयज्ञ, देवयज्ञ, पितृयज्ञ, भूतयज्ञ, अतिथियज्ञ, का विधान है यह सभी यज्ञ लोक कल्याण की भावना से किए जाने का विधान है।
6. यम नियमों का पालन- भारतीय संस्कृति में यम नियमों का पालन भी अनिवार्य माना गया है यम पांच है- सत्य, अहिंसा, अस्तेय, ब्रह्मचारी, अपरिग्रह | नियम भी पांच बताए गए हैं - शौच, संतोष, तप, स्वाध्याय और ईश्वर प्राणिधान। आत्मिक और भौतिक उन्नति में प्रमुख योगदान है |
7. कर्म फल एवं पुनर्जन्म - भारत की संस्कृति की प्रमुख विशेषता पुनर्जन्म के सिद्धांत की है | भारतीय दार्शनिकों के अनुसार मानव का पुनर्जन्म होता है और दूसरे जन्म में मनुष्य प्रथम जन्म के किए गए शुभाशुभ कर्मों का फल निश्चय ही भोगता है | इस संसार में रहते हुए मनुष्य को कर्म में प्रवृत्त होना पड़ता है, परंतु हमारे दार्शनिकों ने आसक्ति रहित कर्मों का विधान बताया है |
8. पुरुषार्थ चतुष्टय- भारतीय संस्कृति में धर्म अर्थ काम और मोक्ष इन चारों पुरुषार्थो की कल्पना की गई है |इन चारों पुरुषार्थों पालन करते हुए ही व्यक्ति एवं समाज की सुख समृद्धि संभव है। ये चार पुरुषार्थ - धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष है |
9. तप एवं त्याग की भावना- तेन त्यक्तेन भुंजीथाः मा गृधः कस्यस्विद्धनम्।। यह वैदिक उक्ति इस बात का संदेश देती है कि भारतीय संस्कृति के कण-कण में त्याग और तपस्या की भावना निहित है।
भारतीय संस्कृति का मानव कल्याण में योगदान
भारतीय संस्कृति परम उदार और आदर्शमयी यह है। धार्मिकता उसका प्राण है। आध्यात्मिकता उसके नेत्र हैं। नैतिकता उसकी पूजा है। दार्शनिक चिंतन धारा उसकी काया है। परिवर्तनशील ता सहज गुण है। "ईशावास्यमिदं सर्वं" मंत्र में ऋषि ने कहा, हम में ईश्वर है और ईश्वर में हम हैं वसुधैव कुटुंबकम् की कल्पना ही वैश्वीकरण की ओजस्वी भावना थी। जब लोग जंगली थे, तब भारत की सभ्यता और संस्कृति उन्नत अवस्था में थी | सहस्र वर्ष के कालखंड में भारतीय संस्कृति को वैदिक, बौद्ध ,जैन, शिव ,वैष्णव आदि धर्म चिंतन धाराओं ने पूर्णरूपेण प्रभावित किया है। भारतीय संस्कृति मानवीय मूल्यों की संवाहिका है। संपूर्ण विश्व को एक सूत्र में बांधने की शिक्षा भारतीय संस्कृति ही देती है। अतः भारतीय संस्कृति का आश्रय लेकर है विश्व कल्याण और मंगल विधान संभव है।भारतीय संस्कृति और सभ्यता |
भारतीय संस्कृति का महत्व
आज के परिपेक्ष में भारतीय संस्कृति के अध्ययन की महती आवश्यकता है भारतीय संस्कृति में मानव की भौतिक एवं आध्यात्मिक दोनों प्रकार की उन्नति को अपना आधार बनाया है, जबकि विश्व की मिश्र, रोम, ईरान आदि अन्य संस्कृतियों में केवल भौतिक प्रगति की ओर ध्यान दिया जाता रहा है । संभवत इसी कारण प्राचीन भारतीय संस्कृति विश्व की समस्त संस्कृतियों में अग्रगण्य है। भारतीय संस्कृति में भौतिक प्रगति के साथ-साथ मानव के सर्वांगीण विकास की ओर ध्यान दिया गया है।संस्कृत वैज्ञानिक आविष्कारों एवं भौतिकता की चकाचौंध ने पुनः मानव जीवन को पूर्णरूपेण आक्रांत कर लिया है। आज का युग अधिकांश अर्थ प्रधान हो चुका है तथा नैतिक मूल्यों में बड़ा ह्रास हुआ है। वैज्ञानिक आविष्कारों ने मानव की भौतिक उन्नति में निश्चय ही अभूतपूर्व योगदान दिया है। पृथ्वी पर चलने वाले मनुष्य को चंद्रलोक की यात्रा करा दी है और हो सकता है शनै: शनै: वह प्रत्येक ग्रह नक्षत्र पर विचरण करने लग जाए, परंतु इस भौतिक प्रगति ने मानव को घोर स्वार्थी, ईर्ष्यालु एवं दम्भी बना दिया है सर्वत्र भैतिकता का बोलबाला है | जीवन में अर्थ ही सर्वोपरि बन गया है| अर्थ के आगे न विद्वता का कोई मूल्य है और न सभ्यता का और न कुलीनता का। नई भौतिकवादी सभ्यता की इस चकाचौंध में वास्तविक प्रकाश हमें प्राचीन भारतीय संस्कृति में मिल सकता है | प्राचीन भारतीय संस्कृति सुख, संतोष, तप, उदारता एवं दया का पाठ पढ़ाते हुए मानव जीवन में आध्यात्मिकता एवं नैतिकता का विकास करने वाली है, जिससे ही आज की विषम एवं संकटग्रस्त अवस्था में प्राचीन भारतीय संस्कृति ही हमारा पथ प्रदर्शन करने में समर्थ है।
मानव तभी वास्तविक सुख शांति प्राप्त कर सकेगा, जब उसके जीवन में सत्य, त्याग, संतोष, दया आदि सद्गुणों का विकास होगा इन गुणों का समुचित विकास हो जाने पर मानव की आध्यात्मिक उन्नति होगी | वास्तविक शांति एवं विश्व कल्याण की भावना विकसित हो सकेगी और यही भारतीय संस्कृति का उद्देश्य है।
आज के भौतिक चकाचौंध में जीवन के प्रत्येक पक्ष को भले ही वह धार्मिक हो, राजनीति या सामाजिक हो या व्यक्तिगत हो पूर्णत: स्वार्थ, दंभ, ईर्ष्या, क्रोध आदि कुलषित भावनाओं से दूषित कर दिया है | यदि हम सर्वांगीण उन्नति चाहते हैं, तो हमें प्राचीन भारतीय संस्कृति का अध्ययन कर कालुष्य का परिमार्जन करना होगा | तभी हमारा जीवन सुखद एवं शांतिमय हो सकेगा | ऋग्वेद में भी परस्पर समभाव एवं सद्भाव की भावना को महत्व दिया गया है-
सामानो मंत्रः समितिः समानी।
समानं मनः सह चितमेषाम्।।
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बहुत बढ़िया Sanskrit विशेषज्ञ गुरु जी आप में अपार ज्ञान भरा है आप अपने ज्ञान से हमें युं ही प्रेणना देते रहे वास्तव में शिक्षक उस दीपक के समान होता है जो स्वयं जलकर दूसरों को प्रकाशित करते हैं
ReplyDeleteबहुत बढ़िया Sanskrit विशेषज्ञ गुरु जी आप में अपार ज्ञान भरा है आप अपने ज्ञान से हमें युं ही प्रेणना देते रहे वास्तव में शिक्षक उस दीपक के समान होता है जो स्वयं जलकर दूसरों को प्रकाशित करते हैं
ReplyDeleteबहुत ही सराहनीय कार्य सेमवाल जी
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