कर्म(Karma) पर आधारित संस्कृत श्लोक, karm par aadhaarit sanskrit shlok, अच्छे कर्म, Good karmas.
1. कर्मणामी भान्ति देवाः परत्र कर्मणैवेह प्लवते मातरिश्वा।
अहोरात्रे विदधत् कर्मणैव अतन्द्रितो नित्यमुदेति सूर्यः।।
कर्म से ही देवता चमक रहे हैं। कर्म से ही वायु बह रही है। सूर्य भी आलस्य से रहित कर्म करके नित्य उदय होकर दिन और रात का विधान कर रहा है।।2. तथा नक्षत्राणि कर्मणामुत्र भान्ति रुद्रादित्या वसवोsथापि विश्वे।। उद्योग० 29/15
रुद्र, आदित्य, वसु, विश्वेदेव और सारे नक्षत्र भी कर्म से ही प्रकाशित हो रहे हैं।
भरतनंदन ! मनुष्य अपने कर्मों से स्वर्ग, सुख और दुःख पाता है।।
वार्ष्णेय ! किये गये अच्छे और बुरे कर्मों का नाश, उनका भोग(फल) मिले बिना नहीं होता।।
देखिए सारा संसार अपने-अपने कार्यों में लगा हुआ है ।इसीलिए हमें भी अपने कर्तव्य कर्म करने चाहिए। काम न करने वाले को सफलता नहीं मिलती।
राजेन्द्र! शुभ कर्म कल्याण के लिए ही होता है।
कर्म से ही धर्म बढ़ता है। जो जैसा धर्म अपनाता है, वह वैसा ही हो जाता है।।
संसार में मनुष्य जैसा काम करता है उसे उसका वैसा ही फल मिलता है।
3. बह्मविद्यां ब्रह्मचर्यं क्रियां च निषेवमाणा ऋषयोSमुत्रभान्ति।। उद्योग० 29/16
ऋषि भी वेदज्ञान, ब्रह्मचर्य और कर्म का पालन करके ही तेजस्वी बनते हैं।
4. कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन।।
तुम्हें कर्म करने का ही अधिकार है उन कर्मफल पाने की चिन्ता का नहीं है।
5. प्रायशो हि कृतं कर्मं नाफलं दृश्यते भुवि।
अकृत्वा च पुनर्दुःखं कर्म पश्येन्ममहाफलम्।। सौप्ति० 2/13
प्राय देखने में आता है कि इस संसार में किए गए कर्म का फल मिलता है। काम न करने से दुख ही मिलता है । कर्म महान फलदायक होता है।।
6. कर्मणा प्राप्यते स्वर्गः सुखं दुःखं च भारत ।। स्त्री०3/11
7. न हि नाशोSस्ति वार्ष्णेय कर्मणोः शुभपापयोः। स्त्री० 18/12
8. अवेक्षस्व यथा स्वैः स्वैः कर्मभिर्व्यापृतं जगत्।
तस्मात् कर्मैव कर्त्तव्यं नास्ति सिद्धिरकर्मणः।। शान्ति०10/28
9. शुभं हि कर्म राजेन्द्र शुभत्वायोपपद्यते।। शान्ति० 59/130
10. कर्मणा वर्धते धर्मो यथा धर्मस्तथैव सः।।शान्ति० 65/10
11. कर्म चात्महितं कार्यं तीक्ष्णं वा यदि वा मृदु।
ग्रस्यतेSकर्मशीलस्तु सदानर्थैरकिञ्न।। शान्ति० 139/84
जो अपने लिए हितकर कठोर या कोमल कर्म हो, उसे करना चाहिए। जो काम नहीं करता, वह निर्धन हो जाता है और उसे मुसीबतें घेर लेते हैं।।
12. यत् कृतं स्याच्छुभं कर्मं पापं वा यदि वाश्नुते।
तस्माच्छुभानि कर्माणि कुर्याद् वा बुद्धिकर्भिः।। शान्ति० 215/5
मनुष्य जो भी अच्छे-बुरे कर्म करता है। उनका फल उसे भोगना पड़ता है इसीलिए मन, बुद्धि और शरीर से सदा अच्छे कर्म करने चाहिए।।महाभारत में कर्मफल Mahabharat me karmphal sanskrit shlok with hindi Meaning
Sanskrit Shlok |
कर्मफल, karmphal, पर आधारित संस्कृत श्लोक, karmphal, par aadhaarit sanskrit shlok,
12. नान्यः कर्तुः फलं राजन्नुपभुङ्क्ते कदाचन।। वन०128/14
राजन! कोई भी व्यक्ति दूसरे व्यक्ति के कर्मों का फल भी भोक्ता है।
13. किंचिद् दैवाद् हठात् किंचिद् किंचिदेव स्वकर्मभिः।
प्राप्नुवन्ति नरा राजन् मा तेSस्त्वन्या विचारणा।।वन० 183/86
राजन! विवेकशील पुरुषों को कर्मों का कुछ फल प्रारब्धवश मिलता है। कुछ फल हठात प्राप्त होता है और कुछ कर्मों का फल अपने कर्मों से ही प्राप्त होता है।
14. कृतमन्वेति कर्तारं पुराकर्म दिजोत्तम।।वन०207/23
विप्रवर ! पहले किए हुए कर्म का फल कर्म करने वाले को भोगना ही पड़ता है।
15. विषमां च दशां प्राप्तो देवान् गर्हति वै भृशम्।
आत्मनः कर्मदोषाणि न विजानात्यपण्डितः।।वन० 209/6
मूर्ख मनुष्य संकट में पड़ने पर देवताओं को खूब कोसता है ।किंतु यह नहीं समझता कि उसे अपने कर्मों का ही यह फल मिल रहा है।
16. शुभैः प्रयोगैर्देवत्वं व्यामिश्रैर्मानुषो भवेत्।
मोहनीयैर्वियोनीषु त्वधोगामी च किल्विषी।। वन०209/32
अच्छे कर्म करने से जीव को देव योनि मिलती है जीव अच्छे और बुरे कर्म करने से मनुष्य योनि में मोह में डालने वाले तामसिक कर्म करने से पशु पक्षी योनियों में तथा पाप कर्म करने से नरक में जाता है।
17. स चेन्निवृत्तबन्धस्तु विशुद्धश्चापि कर्मभिः।
तपोयोग सभारम्भं करुते द्विजसत्तम।। वन०209/39
विप्रवर बंधन के कारण बने कर्मों का भोग पूरा हो जाने पर और अच्छे कर्मों से मन और शरीर शुद्ध हो जाने पर मनुष्य तपस्या और योगाभ्यास शुरू कर देता है।संस्कृत श्लोक हिंदी अर्थ सहित
18. ध्रुवं न नाशोSस्ति कृतस्य लोके।।वन०236/27
इस संसार में किए हुए कर्म का फल नष्ट नहीं होता।।
19. इह क्षेत्रे क्रियते पार्थ कार्यं न वै किंचित् क्रियते प्रेत्यकार्यम्।।उद्योग०27/12
पार्थ ! इसी शरीर के रहते पाप- पुण्य कर्म किए जा सकते हैं मरने के बाद कोई कर्म नहीं किया जा सकता।
20. नूनं पूर्वकृतं कर्म सुधारमनुभूयते।। शल्य०59/22
सभी लोग अपने पहले किए गए कर्मों का फल अवश्य भोगते हैं।
21. शयानं चानुशेते हि तिष्ठन्तं चानुतिष्ठति।
अनुधावति धावन्तं कर्म पूर्वकृतं नरम्।। स्त्री०2/32
मनुष्य का पहले किया हुआ कर्म उसके सोने के साथ ही सोता है उठने पर साथ ही उठता है और दौड़ने पर साथ ही दौड़ता है वह पीछा नहीं छोड़ता।
22. यस्यां यस्यामवस्थायां यत् करोति शुभाशुभम्।।
तस्यां तस्यामवस्थायां तत्फलं समुपाश्नुते।।
मनुष्य जिस-जिस अवस्था में जो भी अच्छा - बुरा कर्म करता है उसी परिस्थिति में उसे अच्छे-बुरे कर्मों का फल मिलता है।
23. येन येन शरीरेण यद्यत् कर्म करोति यः।
तेन तेन शरीरेण तत्फलं समुपाश्नुते।।
प्राणी जिस जिस शरीर में जो जो कर्म करता है वह उसी शरीर से उस कर्म का फल भी भोगता है।
24. शुभाशुभफलं प्रेत्य लभते भूतसाक्षिकम्।
अतिरिच्येत यो यत्र तत्कर्ता लभते फलम्।। शान्ति०35/40
मनुष्य के अच्छे और बुरे कर्म के साक्षी पंचमहाभूत होते हैं इन कर्मों का फल मृत्यु के बाद मिलता है अच्छे और बुरे कर्मों में जैसे कर्म अधिक होते हैं उनका फल पहले मिलता है ।
25. न कर्मणा पितुः पुत्रः पिता वा पुत्रकर्मणा ।
मार्गेणान्येन गच्छन्ति बद्धाः सुकृत दुष्कृतैः।। शान्ति०153/38
पिता के कर्म से पुत्र का और पुत्र के कर्म से पिता का कोई संबंध नहीं है । जीव अपने - अपने पाप - पुण्य कर्मों के बंधन में बंधे हुए अलग-अलग रास्तों से अपने कर्मों के अनुसार जाते हैं।
26. अचोद्यमानानि यथा पुष्पाणि फलानि च।
स्वं कालं नातिवर्तन्ते तथा कर्म पुरा कृतम्।।शान्ति०181/12
जैसे फूल और फल किसी की प्रेरणा के बिना ही उचित समय आने पर वृक्षों पर लग जाते हैं । वैसे ही पूर्व जन्म के कर्म भी अपने फल भुगतने के समय का उल्लंघन नहीं करते हैं । उचित समय आने पर उसका फल मिलता है।सुभाषित, श्लोक संस्कृत संस्कृत, संस्कृत में श्लोक हिन्दी अर्थ सहित ... SHLOK IN HINDI.
27. आत्मना विहितं दुःखमात्मना विहितं सुखम्। शान्ति० 322/14
गर्भशय्यामुपादाय भुज्यते पौर्वदेहिकम्।। शान्ति०181/14
दुःःख और सुख अपने ही किए कर्मों का फल है । जीव गर्भ में आते ही अपने पूर्व जन्म के कर्मों का फल भोगने लगता है।
28. यथा कर्म तथा लाभ इति शास्त्रनिदर्शनम्।। शान्ति०279/20
शास्त्र का सिद्धांत है कि जैसा कर्म होता है वैसा ही फल मिलता है।
29. चक्षुषा मनसा वाचा कर्मणा च चतुर्विधम्।
कुरुते यादृशं कर्म तादृशं प्रतिपद्यते।। शान्ति० 290/16
मनुष्य, आंख, मन, वाणी और हाथ-पैर आदि से जैसा काम करता है उसके अनुसार मनुष्य को फल मिलता है।
30. नायं परस्य सुकृतं दुष्कृतं चापि सेवते ।
करोति यादृशं कर्म तादृशं प्रतिपद्यते।।शान्ति०280/2
जीवात्मा किसी दूसरे के पाप और पुण्य कर्मों का फल नहीं भोगता अपितु वह जैसे कर्म करता है उसके अनुसार उसे भोग मिलता है।
31. शुभेन कर्मणा सौख्यं दुःखं पापेन कर्मणा।
कृतं फलति सर्वत्र नाकृतं भुज्यते क्वचित्।। अनु०6/10
अच्छे कर्म करने से सुख और पाप कर्म करने से दुःख मिलता है । अपना किया हुआ कर्म सब जगह फल देता है। बिना किए हुए कर्मों का फल कभी नहीं भोगा जाता ।
32. नाकृतं भुज्यते कर्म न कृतं नश्यते फलम्।।
बिना किए हुए कर्म का फल किसी को नहीं मिलता तथा किए हुए कर्मों का फल भोगे बिना नष्ट नहीं होता है।
33. तथा शुभसमाचारो ह्यशुभानि विवर्जयेत।
शुभान्येव समादद्यात् या इच्छेद् भूतिमात्मनः।।
जो मनुष्य अपना कल्याण चाहता हो वह अच्छे कर्म ही करें और बुरे कर्मों को छोड़ दें ऐसा करने से वह अच्छे कर्मों का फल प्राप्त करेगा।
34. पुण्यान् पुण्यकृतो यान्ति पापान् पापकृतो नराः।अनु०102/2
पुण्य कर्म करने वाले जीव पुण्यलोकों में और पाप कर्म करने वाले मनुष्य पापमय लोकों में जाते हैं।
35. शुभकृच्छभयोनीषु पापकृत् पापयोनीषु।। अनु०119/9
अच्छे कर्म करने वाला प्राणी अच्छी योनियों में और पाप कर्म करने वाला प्राणी पाप योनियों में जन्म लेता है।
36. वीतरागा विमुच्यते पुरुषाः कर्मबन्धनैः।
कर्मणा मनसा वाचा ये न हिंसन्ति किंचन।। अनु०144/7
जो मनुष्य कर्म, मन और वचन से किसी की हिंसा नहीं करते और जिनका सभी तरह का लगाव समाप्त हो गया है ऐसे पुरुष कर्म बंधनों से छूट जाते हैं।
37. तुल्यद्वेष्यप्रिया दान्ता मुच्यते कर्मबनधनैः। अनु०144/9
जिनके लिए शत्रु और प्रिय मित्र दोनों ही समान हैं ऐसे जितेंद्रिय पुरुष कर्मों के बंधन से छूट जाते हैं।
38. यादृशं कुरूते कर्म तादृशं फलमश्नुते ।
स्वकृतस्य फलं भुङ्क्ते नान्यस्तद् भोक्तुमर्हति ।।
प्राणी जैसा कर्म करता है उसे उस कर्म का वैसा ही फल मिलता है वह अपने कर्मों का फल अपने आप ही भोगता है उसके कर्मों का फल कोई दूसरा नहीं भोगता है।
39. सर्वदाSSत्मा कर्मवशो नानाजातिषु जायते।।
जीवात्मा सदैव अपने कर्मों के अधीन रहकर अनेकविध योनियों में जन्म लेती है।
40. कर्म कर्त्ता नरोSभोक्ता स नास्ति दिवि वा भुवि।।
स्वर्ग में या पृथ्वी पर ऐसा कोई मनुष्य नहीं है जिसे अपने किए हुए कर्मों का फल न भोगना पड़ता हो।
41. न शक्यं कर्म चाभोक्तुं सदेवासुरमानुषैः।
देवता, असुर और मनुष्य कोई भी अपने कर्मों का फल भोगे बिना नहीं रह सकता है।
43. यथा कर्म कृतं लोके तथैतानुपपद्यते।।आश्व० 50/31
44. यस्य यद् विहितं वीर सोSवश्यं तदुपाश्नुते।।महाप्र० 2/17
जिस व्यक्ति का जैसा काम होता है उसे उस काम का फल अवश्य झुकना पड़ता है।
45. न नश्यति कृतं कर्म सदा पञ्चेन्द्रियैरिह।
ते ह्यस्य साक्षिणो नित्यं षष्ठ आत्मा तथैव च।। अनु०7/5
मनुष्य की पांचों इंद्रियों द्वारा किया गया कर्म नष्ट नहीं होता है। पांचों इंद्रियों और छटा मन ये सब उस कर्म के साक्षी होते हैं।Other Links
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