महाभारत में धर्म, sanskrit shlok hindi arth sahit, sanskrit subhashitani. संस्कृत श्लोक हिन्दी अर्थ सहित,संस्कृत सुभाषितानि

 

महाभारत में धर्म, sanskrit shlok hindi arth sahit

 महाभारत में धर्म mahabharat me dharm, धर्म समग्र जीवन की पद्धति है, वह नश्वर  में अविनश्वर  तथा अचिर  में चिर का अनुसंधान है, धर्म जीवन का स्वभाव है, धर्म ज्ञान और विश्वास से अधिक कर्म एवं आचरण में रहता  है| महाभारत में धर्म  इसिलिए धारण करने वाला कहा गया है| धर्म  हमारे राष्ट्रीय जीवन में अनंत काल से चल रही सामाजिक, राजनीतिक, संस्कृति व्यवस्था की मूलभूत संरचना  है| धर्म मनुष्य के मन को सुनिश्चित करता है तथा विभिन्न व्यक्तियों में सामंजस्य स्थापित करता है, ताकि उनका जीवन समरसता और सहकारिता पूर्ण बन सके और ऐसी कुशल सामाजिक व्यवस्था स्थापित हो जाए, कि लोग मिलजुल कर संगठित जीवन जीने लगे| 

 महाभारत के शांति पर्व में  महर्षि वेदव्यास द्वारा धर्म को गूढ़रूप में बताया गया है, जिस को संयुक्त रूप से देखा जाए तो धर्म की स्थापना से यह  अर्थ प्रकट हो जाता है कि ,विश्व में  ऐसे संगठित सामाजिक जीवन का निर्माण हो, जिसमें प्रत्येक व्यक्ति समाज में  दूसरों के साथ समरसता   की भावना का  अनुभव करें और प्रत्येक प्राणी के भौतिक जीवन को अधिक समृद्ध एवं  सुखी बनाने के लिए त्याग एवं बलिदान की भावना से प्रेरित हो|  इसके अतिरिक्त प्रत्येक व्यक्ति में ऐसी आध्यात्मिक शक्ति  हो, जो हमें परम-आत्मा  तत्व तक पहुंचाने में सहायता करें| अगर एक शब्द में कहे तो धर्म  वह है जिससे अलौकिक उन्नति के साथ आत्म कल्याण हो-

            प्रभवार्थाय भूतानां धर्मप्रवचनं कृतम्।

            यः स्यात् अहिंसा संयुक्त स धर्म इति निश्चयः।।गीताप्रेस 109/10  

     

डीडी हर्ष ने स्पष्ट शब्दों में कहा है कि- परस्पर एकता की आत्मीय विस्तार का नाम धर्म है और पारस्परिकता  के अनात्मीय संकुचन का नाम अधर्म है|  धर्म के संदर्भ में पारस्परिकता   पद का प्रयोग करते हुए लेखक यह स्पष्ट कर देते हैं कि, इससे उनका तात्पर्य समग्रता के बोध से है|  लेकिन समग्रता का यह तात्विक  बोध मानवीय व्यवहार में पारस्परिकता के  आत्मिक विस्तार के रूप में प्रकट होता है और इसके विपरीत आचरण अधर्म की ओर ले जाता है|  विदित है कि, यहां धर्म शब्द किन्हीं  संकीर्ण  शब्दों में नहीं बल्कि जीवन-मूल्यों के अर्थ में प्रयोग किया जा रहा है।  शांति पर्व में वर्णित धर्म मानव धर्म है, जिसमें मनुष्य के जीवन मूल्यों का विस्तृत वर्णन किया गया है । 

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धृ+मन्  धातु से निस्पंद धर्म शब्द की अनेकानेक व्याख्या की गई है फिर भी धर्म को समझ पाना या धर्म का निर्वहन कर पाना अत्यंत कठिन है शब्दकोश में धर्म के अनेक अर्थ प्राप्त होते हैं जैसे धारण करना, पालन करना,आश्रय देना आदि |
धर्म वह  है,जो सबको धारण करता है, अधोगति में जाने से बचाता है और जीवन की रक्षा करता है | धर्म ने सारी प्रजा को धारण कर रखा है |  अतः  जो जीवन को संतुलित रखें व धर्म है यही महाभारत के  शांतिपर्व में कहा गया  है-
             धारणाद् धर्ममित्याहु धर्मेण विधृताः प्रजाः।
              यः स्याद् धारणसंयुक्तः स धर्म इति निश्चयः।। महाभारत शांतिपर्व -१०९/११ 


वैशेषिक दर्शन में भी धर्म के विषय में  कहा गया है कि जिस आचरण से संसार में विधिवत उन्नति हो और मृत्यु के पश्चात परलोक  सिद्ध हो जाए वही धर्म है-
                 यतोsभ्युदयनिःश्रेयस सिद्धिस्स धर्मः। वैशेषिक दर्शन1/1/2

मानवीय आदर्शों का आधार धर्म ही है | संस्कृति हो या अस्तित्व या अभ्युदय इनके मूल में धर्म ही निहित है | सामान्यत मानवीय मूल्यों का परिपालन ही धर्म है | धर्म की अनेक परिभाषाएं दी गई हैं विश्व विख्यात जिन विद्वानों ने धर्म की  उनमें प्रमुख निम्नांकित है-

  धर्म की परिभाषा dharm ki  paribhasha, विभिन्न विद्वानों द्वारा दी गई  धर्म की परिभाषा


 मैक्स मूलर के अनुसार- 
    धर्म वह मानसिक शांति या प्रवृत्ति है जो मनुष्य को अनंत सता  का ज्ञान प्राप्त करने में सक्षम सिद्ध होती है |
 कांट के मतानुसार-
    हमारे दैनिक कर्तव्यों का ईश्वरीय आदेशों के रूप में अभिज्ञान ही धर्म है।
 होफीडिंग के कथानानुसार-
    मूल्यों के संरक्षण में विश्वास ही धर्म है|
 मैथ्यू अर्नाल्ड के  विचारानुसार-
         संवेग सहित नैतिकता ही धर्म है |
हीगल के मतानुसार-
        अपूर्ण बुद्धि द्वारा अपने स्वरूप का पूर्ण बुद्धि के रूप में ज्ञान ही धर्म है |

 डॉ संपूर्णानंद ने धर्म को परिभाषित करते हुए कहा है कि, धर्म उन सब कर्मों की समष्टि  का नाम है, जो कल्याणकारी हैं।
उक्त परिभाषा ओं के अध्ययन से यह निष्कर्ष निकलता है कि धर्म में धारण करने का भाव विद्यमान रहता है जो जीवन एवं जगत को संतुलित रखने में समर्थ है जिसके  सेवन और पालन से मनुष्य परम -उत्कर्ष को प्राप्तकर लेता है | धर्म केवल आत्म-निष्ठ अनुभूति मात्र नहीं है, इससे विश्वातीत परम सत् का ज्ञान और उससे पुनीत संबंध होने का सामर्थ्य निहित  रहता है |  
    भारत के भूतपूर्व राष्ट्रपति प्रसिद्ध दार्शनिक डॉ राधाकृष्णन ने कहा है कि धर्म शब्द अंग्रेजी भाषा में व्यक्त करना हो,  तो वह शब्द होगा (ड्यूटी Duty) कर्तव्य| 
              

 महाभारत में स्पष्ट शब्दों में लिखा है, जो धर्म दूसरे धर्म को बाधा पहुंचाता है वह धर्म ना होकर कुधर्म होता है जो दूसरे धर्म का विरोध के बिना प्रतिष्ठित होता है वही वास्तविक धर्म है।

धर्म की व्याख्या dharm ki vyakhya, धर्म का स्वरूप dharm ka swarup

  धर्म एवं उसके स्वरूप का विस्तार असीम है महाभारत में वेद व्यास ने जिस धर्म का स्वरूप निर्धारण किया है वह अत्यंत ही विषाद एवं व्यापक है सबसे संक्षिप्त रूप में धर्म यही है -

आत्मन: प्रतिकुलानि परेषां न समाचरेत || 

 अर्थात जो कुछ हमारे प्रतिकूल आचरण है या दूसरों के लिए जिस आचरण से हम अपमानित या दुखी हो जाते हैं, वैसा आचरण हम स्वयं दूसरों के लिए न करें | तात्विक   दृष्टि से धर्म समूचे विश्व का अलिखित संविधान है | पूरे ब्रह्मांड का  नियामक तत्व है-
                    धर्मो विश्वस्य जगत: प्रतिष्ठा:|

अर्थात  धर्म ही  संपूर्ण जगत की प्रतिष्ठा है | जगत का आधार है|  परंतु व्यवहारिक दृष्टि से यथा ब्रह्मांड तथा पिंडे न्याय के अनुसार धर्म मानव जीवन का वैयाक्तिक और सामाजिक स्तर पर,   आत्मसंयम के आधार पर सम्यक  व्यवस्थापन ही  है | अतः   तत्वत: धर्म सर्वकालिक और सार्वभौमिक है |  सनातन और अनादि है | अखंड और अविभाज्य है तथा व्यावहारिक स्तर पर धर्म देशकाल अनुसार नाना रूपों में व्यक्त होता है | स्थान और समय की शंकाओं के समाधान एवं आकांक्षाओं की पूर्ति हेतु तत्कालिक विद्वत   समाज द्वारा उसका मार्जन परिमार्जन होता रहता है-                

        बहुद्वारस्य धर्मस्य नेहास्ति विफला क्रिया | महाभारत शांतिपर्व १७४//२ 
 धर्म के बहुत से द्वार है जिनके द्वारा धर्म अपनी अभिव्यक्ति करता है तथा धर्म की कोई भी क्रिया विफल नहीं होती है | यह द्वार युग दृष्टा मनुष्यों के पुष्ट  मत व आचरण मुख ही तो है| तदर्थ ही  धर्माचरण सर्वदा तथा सर्वथा श्लाघनीय  है| 
 धर्म मानव जीवन में ऐसा आदर्श प्रस्तुत करता है,जिससे मानव जीवन का कल्याण हो जाता है | धर्म  समस्त मानव मूल्यों का मूल आधार एवं स्रोत  है|  धर्म समाज में शांति व्यवस्था एवं सामंजस्य उत्पन्न करता है |  धर्म केवल भाव मात्र नहीं है, वह यथार्थ जीवन में प्रकट होने वाला भी हुआ और विश्वास भी है | धर्म की वृद्धि होने पर की समस्त प्राणियों का अभ्युदय होता है और धर्म का ह्रास होने पर सब का ह्रास हो जाता है-
धर्मे वर्धति  वर्धन्ति सर्वभूतानि सर्वदा।
तस्मिन् ह्रसति हीयन्ते तस्माद्धर्म प्रवर्धयेत।। महाभारत/12/90/17

 धर्म का दूसरा नाम व्यवहार है- धर्मस्याख्या महाराज व्यवहार इतीष्यते।। महाभारत/12/121/9
               
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महाभारत में धर्म


धर्म की विशेषता, dharm ki visheshata, संस्कृत श्लोक हिंदी अर्थ सहित , sanskirt shlok hindi arth sahit.         

धर्म , श्रद्धा एवं आस्था है, जो मनुष्य के मन में सद- विचारों को प्रेरित करती है |  जब तक इसे सदाचार के रूप में जीवन में ने उतारा जाए तब तक इसकी कोई सार्थकता सिद्ध नहीं होती है |  मनीषी पुरुष भी  समस्त प्राणियों के लिए मन द्वारा किया हुआ धर्म ही श्रेष्ठ मानते  हैं | अतः मन से संपूर्ण जीवों का कल्याण करते रहें -
मानसं सर्वभूतानां धर्ममाहुर्मनीषिणाः।
तस्मात् सर्वेषु भूतेषु मनसा शिवमाचरेत्।।महा०शान्ति०193/31 

धर्म  की संपूर्ण वैज्ञानिकता इस तथ्य में है कि वह सभी कालो परस्थितियों  एवं विषमताओं में भी आचरणीय एवं पालनीय  हो सकता है भारतीय सनातन धर्म की यही विशेषता है| सनातन धर्म मानवतावादी मूल्यों पर आधारित है, धर्म में ही जीवन का सुख है |  सभी प्राणी सुख की इच्छा रखते हैं और सुख धर्म से ही उत्पन्न होता है अतः समस्त वर्णों को सदैव प्रयत्नपूर्वक धर्म का ही आचरण करना चाहिए-

सुखं वाच्छन्ति सर्वे हि तच्च धर्मसमुद्भवम्।
तस्माद् धर्मः सदा कार्यः सर्ववर्णैः प्रयत्नतः।। दक्षस्मृति 3/23



महाभारत में धर्म, संस्कृत श्लोक हिंदी अर्थ सहित, Mahabhart me dharm, sanskrit shlok hindi arth sahit


1.  येन विश्वमिदं नित्यं धृतं चैव सुरक्षितम्।

      सनातनोsक्षरो यस्तु तस्मै धर्माय वै नमः।।
जिसने इस सम्पूर्ण जगत को नित्य धारण कर रखा है और जो सतत जगत का सब प्रकार से पालन पोषण तथा रक्षा करता है उस सनातनी अविनाशी धर्म को नमस्कार है।

  2.  यत् स्यादहिंसा संयुक्तं स धर्म इति निश्चय:|

        अहिंसार्थाय भूतानां धर्मप्रवचनं कृतम् ||

जिस कार्य  को करने से किसी भी  जीव की हिंसा न हो वही धर्म है|  ऋषि-मुनियों ने किसी भी प्राणी की हिंसा न होने देने के लिए धर्म का प्रवचन किया है।

3.     अद्रोहेणैनव भूतानां यो धर्मः स सतां मतः। महाभारत /12/21/11

 सज्जनों के विचार अनुसार किसी भी प्राणी से   द्रोह न करके जिस धर्म का पालन किया जाता है  वही धर्म है।

4.  अद्रोहः सत्यवचनं संविभागो दया दमः।

     प्रजनं स्वेषु दारेषु मार्दवं ह्रीरचापलनम्। 

    एवं धर्मं प्रधानेष्टं मनुः स्वायम्भूवोsब्रवीत।। महाभारत /12/21/12

 किसी से झगड़ा ना करना, सदा सत्य बोलना,  असहाय व्यक्तियों को दान देना, सब के प्रति दया भाव रखना , मन और इंद्रियों को संयम में रखना, अपनी ही पत्नी से संतान उत्पन्न करना , मधुर व्यवहार, संकोच और लज्जा   का अनुभव न करना,  ये सब  स्वयंभू मनु के अनुसार  श्रेष्ठ धर्म के लक्षण है।

5.     अहिंसार्थाय  भूतानां धर्मप्रवचनं कृतम्। 

        यः स्यादहिंसासंपृक्तः स धर्म इति निश्चयः।।  महाभारत /12/109/12

  प्रत्येक जीव की हिंसा न हो इसके लिए धर्म का उपदेश दिया जाता है। अर्थात अहिंसा से युक्त कर्म ही धर्म है।

6.     सर्वो हि लोको नृपः धर्ममूलः।  महाभारत /12/120/4

     राजन! संपूर्ण विश्व का आधार धर्म ही है।

7.     स वै धर्मो यत्र न पापमस्ति।  महाभारत /12/141/76

 धर्म वही है जिसने पाप नहीं रहे।

8.     धर्मस्य निष्ठा त्वाचारस्तमेवाश्रित्य भोत्स्यसे।  महाभारत /12/259/6

आचार अर्थात सदाचार ही धर्म का आधार है और इसी के द्वारा धर्म के स्वरूप को जाना जा सकता है।

9.      सर्वं प्रियाभ्युगतं धर्ममाहुर्मनीषिणः।

        पश्यैतं लक्षणोद्देशं धर्माधर्मे युधिष्ठिर।।  महाभारत /22/259/25

संक्षेप में  धर्म और अधर्म का लक्षण यही समझना चाहिए कि, सबके साथ  प्रेम पूर्वक बर्ताव करने से जो कुछ प्राप्त होता है वह धर्म है और इसके विपरीत धर्म है।

10.      सर्वेषां यः सुहृन्नित्यं सर्वेषां च हिते रतः।

            कर्मणा मनसा वाचा स धर्मं वेद जाजले।।  महाभारत /12/262/9

जो मनुष्य समस्त  प्राणियों का मित्र होता है और मन, वचन तथा क्रिया द्वारा सर्वदा सभी का हित चाहता है वास्तव में वह धर्म के स्वरूप को जानता है।

11.     धर्म एव कृतः श्रेयानिह लोके परत्र च।  महाभारत /12/290/6

 धर्म के मार्ग पर चलने और उसको अंगीकार करने वाला व्यक्ति इस लोक और परलोक दोनों लोकों  में कल्याण प्राप्त करता है।

12.     योsर्थो धर्मेण संयुक्तो धर्मो यश्चार्थसंयुतः।

        तद्धि त्वामृतसंवादं तस्मादेतौ मताविह।।  महाभारत /12/167/24

जो धन धर्म से युक्त एवं अच्छे मार्ग से  कमाया गया हो वह अमृत के समान  माना गया  है। 


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