Sandhi सन्धि किसे कहते हैं, सन्धि की परिभाषा, भेद और नियम

सन्धि किसे कहते हैं, सन्धि की परिभाषा, भेद और नियम

सन्धि किसे कहते हैं? शब्द सम् उपसर्ग पूर्वक डुधाञ्(धा) धातु में कि (इ) प्रत्यय से सन्धि निष्पन्न होता है (सम्+ धा+कि) जिसका अर्थ है- मेल, संगम, सम्मिश्रण। दो या दो से अधिक शब्दों के आपस में मेल, संगम, सम्मिश्रण को ही सन्धि कहते हैं। यथा - 

राम+आनन्द = रामानन्द यहां पर मकार में स्थित अ और आ का परस्पर मिलन होकर दीर्घ आकर हो गया है।

संस्कृत भाषा की यह अपनी विशेषता है कि वह सन्धि और समास के बल पर लघु से लघुतम रुप धारण करने में समर्थ है।

संस्कृत में सन्धि

सस्कृते सन्धिः शब्दः पुलिङ्ग शब्दः। सन्धेरेव संहिता नाम्ना ज्ञायते। परः सन्निकर्षः संहिता इति पाणिनीयसूत्रानुसारं वर्णानाम् अतिशयितः सन्निधिः (सामीप्यं) संहिता सन्धिः वा उच्यते।  एकस्य वर्णस्य उच्चारणानन्तरम् अपर वर्णस्य उच्चारणं भवति। इत्थमेव तृतीयवर्णस्य चतुर्थवर्णस्य अपि उच्चारणं इत्येवं रीत्या भवति। द्वयोः वर्णयोः उच्चारणयोः मध्ये अर्धमात्राकालात् अपि अधिक कालेन व्यवधानं यथा न भवेत् तथा उच्चारणमेव सन्धिः

सन्धि की परिभाषा 

सन्धि की परिभाषा सामान्यतः दो या दो से अधिक शब्दों के मेल को सन्धि कहते हैं। 
संस्कृत में सन्धि के विषय में कहा गया है-  वर्णानां अतिशयितः सन्निधिः सन्धिः इति कथ्यते। अर्थात वर्णों की अत्यंत समीपता को सन्धि कहते हैं। 
व्याकरण के नियमों के अनुसार स्वर, व्यंजन और विसर्गों के विकार युक्त मेल को सन्धि कहते हैं। यथा प्रति+एक = प्रत्येक। यदि दोनों वर्णों के मिलने पर कोई परिवर्तन नहीं होता है तो उसे सन्धि नहीं कहते है अपितु वह संयोग कहा जाता है। 

जब दो शब्द पास-पास आते हैं, तो एक दूसरे के पास होने के कारण पहले शब्द के अन्तिम वर्ण में या दूसरे शब्द के प्रथम वर्ण में अथवा दोनों वर्णों से जो कुछ परिवर्तन हो जाता है, वर्णों के इस परिवर्तन को ही सन्धि कहते हैं

पूर्वपद या प्रथम पद के अन्तिम वर्ण और उत्तरपद या द्वितीय पद के प्रथम वर्ण में जो आदेश(परिवर्तन) या आगम या लोप होता है। वह सन्धि है और यही सन्धि की परिभाषा है। 

सन्धि में जो परिवर्तन होते है उनके मुख्यतः चार कारण माने गये हैं- आदेश, आगम, लोप और प्रकृतिभाव। इनका वर्णन सन्धि के नियम में किया जायेगा।

सन्धि के नियम

सन्धि करते समय कुछ ध्यान देने योग्य बातें हैं, जिन्हें सन्धि के नियम के नाम से यहां पर वर्णित किया गया है।  
@ सन्धि में दो पदों(शब्दों) का होना आवश्यक है, जिन्हें पूर्वपद और उत्तरपद या प्रथमपद और द्वितीयपद कहा जाता है। यथा - 'प्रति+ एक' यहाँ पर 'प्रति' पूर्वपद या प्रथमपद है और 'एक' उत्तरपद या द्वितीयपद है।
@  सन्धि सदैव पूर्वपद के अन्तिम वर्ण और उत्तरपद के प्रथम वर्ण के मध्य होती है। जैसे-  प्रति+एक =प्रत्येक यहां पर पूर्वपद का अन्तिम वर्ण 'इ' है और उत्तरपद का प्रथम वर्ण 'ए' है।  यहाँ पर इ और ए में आपस में सन्धि हुई है जिस कारण इ के स्थान पर यकार (य वर्ण) का आदेश हुआ है जिससे प्रत्येक शब्द बना।
सन्धि में जो परिवर्तन होता है उसके चार मुख्य कारण हैं-
१. आदेश - योऽभूत्वा भवति सः आदेशः इति भाष्यकारेण उक्तम्। अर्थात् एकस्य वर्णस्य स्थाने अपरवर्णस्य  आगमनम् आदेशः इत्युच्यते। अर्थात एक वर्ण के स्थान पर अन्य वर्ण का आ जाना आदेश कहलाता है। यथा-
गण+ईश = गणेश (अत्र पूर्वपरयोः अकार-ईकारयोः स्थाने एकारादेशः) अर्थात् यहाँ पर पूर्वपद 'अ' (अकार) और उत्तरपद 'ई' (ईकार) के स्थान पर 'ए' (एकार) आदेश हो गया जिस कारण गणेश शब्द बना। इसी तरह इति+अपि= इत्यपि (अत्र इकारस्य स्थाने यकारादेशः) इस शब्द में 'इ' (इकार) के स्थान पर 'य' (यकार) अन्य वर्ण आया है।
२. आगम - स्थितस्य वर्णस्य पार्श्वेऽपूर्वतया अपरस्य वर्णस्य उत्पत्तिः  आगमः। अर्थात् यदा  कश्चित्  वर्णः बहिष्ठात् आगत्य कस्यचित् वर्णस्य समीपे मित्रवत तिष्ठति। तदा सः आगमः इत्युच्यते। उक्तमपि मित्रवद् आगमः इति फलितार्थः। अर्थात् जब विद्यमान वर्ण के समीप नवीनतम दूसरा वर्ण आ जाता है, तो उसे आगम कहते हैं। यथा - 
अस्मिन्+अवसरे= अस्मिन्नवसरे। अत्र अकारात् पूर्वम् अपरः नूतनः वर्णः  नकारः (न) आगमः उत्पन्नः वा। आर्थात् यहाँ पर  उत्तरपद के प्रथम वर्ण 'अ' (अकार) से पहले एक नये वर्ण 'न' (नकार) का आगमन (उत्पन्न) हुआ है। 
३. लोपः -  वर्णस्य वर्णानां वा अदर्शनं लोपः इति कथ्यते। वर्ण या वर्णों का दिखाई नहीं देना लोप है।  यथा - 
कृष्णः + आगच्छति = कृष्ण आगच्छति। अत्र विसर्गगस्य लोपः सञ्जातः। तथा उभाव्+अपि=अभा अपि या ताव् + अपि = ता अपि। अत्र द्वयोः पदयोः वकारस्य लोपः। पहले वाक्य कृष्णः + आगच्छति= कृष्ण आगच्छति। में विसर्ग का लोप तथा दूसरे और तीसरे उदाहरण में 'व' (वकार) का लोप हुआ है।
४. प्रकृतिभावः -  निमित्ते सत्यपि आदेशाभावो विधीयते। सः एव प्रकृतिभावः। सन्धि-कार्य-अर्थं विद्यमानेऽपि निमत्ते आदेशाभावो एव प्रकृतिभावः इत्युच्यते।  जहाँ पर सन्धि होने पर भी आदेशाभाव के कारण सन्धि नहीं होती है वह प्रकृतिभाव है। जैसे हरी+एतौ= हरी एतौ तथा कवी+एतौ= कवी एतौ। अत्र यणः निमित्तस्य सद्भावेऽपि यणः आदेशः न प्रवृत्तः। यण-आदेशस्य आभावः अत्र वर्तते। उक्त दोनों शब्दों हरी एतौ और कवी एतौ में यण सन्धि होने पर भी यण सन्धि न होकर प्रकृतिभाव हुआ

सन्धि के सिद्धांत

सन्धि करना या नहीं करना यद्यपि वक्ता की इच्छा पर निर्भर रहता है फिर भी कहीं कहीं पर सन्धि अनिवार्य रहती है। जैसे -
 धातूपसर्गयोः -  अर्थात् धातु और उपसर्ग के योग में नित्य सन्धि होती है। यथा - प्र+एजते= प्रेजते। 
समासे -  समास में भी नित्य सन्धि होती है। यथा जितानि इन्द्रियाणि येन सः = जितेन्द्रियः।
वाक्ये विवक्षाम् अपेक्षते -  वाक्य प्रयोग में सन्धि करना है या नहीं करना है, यह वक्ता के इच्छा अधीन रहता है। 
सन्धि की भेद
संधि

सन्धि के भेद

सन्धि के भेद सामान्यतः तीन हैं-
१. अच् सन्धिः (स्वर सन्धि)
२. हल् सन्धिः (व्यंजन सन्धि)
३. विसर्ग सन्धिः (विसर्ग सन्धि)
संस्कृत व्याकरणाचार्यों के अनुसार सन्धि के भेद पांच माने गये हैं अर्थात् सन्धि पांच प्रकार की बताई गई है-
१. अच् सन्धिः
२. हल् सन्धिः
३. विसर्ग सन्धिः
४. प्रकृतिभावः सन्धिः
५. स्वादिः सन्धिः
 इन पांच सन्धियों में से प्रकृतिभाव सन्धि को अच् सन्धि (स्वर सन्धि) तथा स्वादिसन्धि को विसर्ग सन्धि में  ही  अन्तर्निहित करते हैं। उक्त तीनों सन्धियों के भी अलग अलग भेद हैं जिनका वर्णन अगले लेख में किया गया है।
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