नरनारायणीम् महाकाव्यम् (Nar Narayanim Mahakavyam)
नरनारायणीम् महाकाव्यम् (Nar Narayanim Mahakavyam) उत्तराखंड संस्कृत साहित्य का एक प्रसिद्ध महाकाव्य है। इस महाकाव्य में नव (9) सर्ग हैं। धर्मप्रजापति की धर्मपत्नी मूर्ति से उत्पन्न नर और नाराणय नामक दो ऋषिकुमारों के जीवन, तपश्चर्या, बद्रीनाथ भ्रमण और कृष्णार्जुन के रुप में अवतरण पर आधारित कथानक है।तपः सिद्ध धर्मपुत्र नर और नारायण के जीवन पर आधारित नरनारायणीम् महाकाव्यम् (Nar Narayanim Mahakavyam) महाकवि सदानंद डबराल जी की सर्वोत्कृष्ट रचना है।
महाकवि सदानंद डबराल जी द्वारा रचित इस नरनारायणीम् महाकाव्यम् के प्रथम सर्ग के श्लोक संख्या 1 से 10 तक के श्लोकों को श्रीदेव सुमन उत्तराखंड विश्वविद्यालय द्वारा अपने स्नातक पाठ्यक्रम में सम्मिलित किया गया है। छात्रों की सुविधा के लिए इस महाकाव्य का सान्वय, सानुवाद, सटिप्पण सम्पादन डॉ. लक्ष्मीविलास डबराल (पार्थसारथि) जी द्वारा किया गया है तथा प्रकाशक सुवीरा प्रकाशन १२५ नेहरु मार्ग, आशुतोषनगर ऋषिकेश -249201 है। परम विद्वान डॉ. लक्ष्मीविलास डबराल जी के द्वारा सम्पादित अंश को ही यहाँ प्रस्तुत किया जा रहा है।
नरनारायणीम् महाकाव्यम् |
नरनारायणीम् महाकाव्यम् (Nar Narayanim Mahakavyam) के प्रथम सर्ग का सारांश
नरनारायणीम् महाकाव्यम् के प्रथम सर्ग का प्रारम्भ वस्तु-निर्देशात्मक मंगलाचरण से होता है। नरनारायणीम् महाकाव्यम् के प्रथम सर्ग में कुल ५४ (54) संस्कृत श्लोक हैं। जिसमें बताया गया है कि, प्रजापति धर्म की पत्नी मूर्ति के गर्भ से ईश्वर के अंशभूत अमृत देह वाले दो ऋषि- पुत्रों अवतरण (उत्पन्न) हुआ। नर और नारायण नाम के दोनों ऋषिकुमारों ने जगत के कल्याण के लिए जन्म लिया, इस लिए उन्होंने अपनी माता मूर्ति से तपश्चर्या के लिए बदरीवन में जाने की अनुमति मांगी। नर और नारायण दोनों ऋषिकुमार सूर्य की दीप्ति के समान सम्पन्न थे। देवताओं की नजर भी दिशाओं को छोड़कर उनके श्रीयुक्त शरीर पर स्थिर हो जाती थी। माँ ने भी पुत्र मोह से अभिभूत होने पर उन्हें तप करने की अनुमति प्रदान नहीं की और एकाकिनोर्वां कः उपप्लवेभ्यः पिशाचयक्षोरगराक्षसेभ्यः। अर्थात् दुर्लभ फल प्राप्ति की इच्छा के पथ पर अकेले चलने वाले तुम दोनों की वहाँ बदरीवन में पिशाच, यक्ष, सर्प और राक्षसों आदि के विघ्नों से तथा सिंहादि हिंसक जंतुओं से कौन रक्षा करेगा? इस प्रकार अपनी व्यथा सुनाने के पश्चात नारायण द्वारा अपनी माँ को समझना - आसाद्य जन्माऽवनिमण्डलेऽस्मिन् लोकोत्तरां ख्यातिमुपैष्यतां ताम्। अर्थात् इस भू मण्डल पर जन्म लेकर अपने गुण और कर्मों से उस पारलौकिक यशः को प्राप्त करने की इच्छा रखने वाले महान पुत्रों को उत्पन्न करने वाली जननी धन्य है, निश्चय ही तीनों लोको में ऐसी माता विरली ही होती है। नारायण के द्वारा इस प्रकार के वचन सुनकर माँ मूर्ति हर्ष से पुलकित होकर आनंद से नर और नारायण को तपस्या के लिए बदरीवन में जाने की अनुमति प्रदान करती है अर्थात् वन के लिए विदा करती है। नरनारायणीम् महाकाव्यम् (Nar Narayanim Mahakavyam) के प्रथम सर्ग का सारांश है।
नरनारायणीम् महाकाव्यम् प्रथम सर्ग श्लोक संख्या 1 से 10 तक संस्कृत श्लोक और हिन्दी व्याख्या
संस्कृत श्लोक - 1
ऐश्वर्य-पीयूष-रसाप्लुताङ्गौ ह्रीमण्डना-मूर्तिरसूत सूनू।
श्रीधर्मपत्नी परमेश्वरांशौ वृषी जगन्मङ्गलमूलमूर्ती।।१।।
अन्वयः - ह्रीमण्डना मूर्तिः श्रीधर्मपत्नी ऐश्वर्य-पीयूष-रसाप्लुताङ्गौ परमेश्वरांशौ जगत्-मंगलमूलमूर्ती ऋषी सूनू असूत।
शब्दार्थ -
ऐश्वर्य-पीयूष रस = ऐश्वर्य रूपी अमृत रस। आप्लुताङ्गौ = आर्द्रम् अङ्गम् अर्थात् सुकोमल मृदु अंङ्गों वाले। ह्रीमण्डना = लज्जा रूपी आभूषण वाली । मूर्ति =मूर्ति (धर्मप्रजापति की पत्नी का नाम)। सूनू =दो पुत्रों को। असूत = अत्पादयामास अर्थात् दैवीय शक्ति से उत्पन्न किया। श्रीधर्मपत्नी= श्री धर्म नामक प्रजापति की पत्नी ने। परमेश्वरांशा = परमेश्वर के अंश रूपी। वृषी = संन्यासी या ब्रह्मचारी। जगतमङ्गलमूर्ती = जगत का कल्याण करने के लिए।
हिन्दी व्याख्या -
नारियों के लज्जा युक्त गुण से विभूषित, धर्मप्रजापति नामक श्रीधर्म की पत्नी मूर्ति ने, ऐश्वर्य रूपी अमृत से द्रवित देहधारी दो ऋषि-पुत्रों को उत्पन्न किया, उन दोनों पुत्रों (नर और नारायण) ने संसार के कल्याण के लिए देह (शरीर) धारण किया।
संस्कृत श्लोक - 2
पर्य्यस्करोद्-भास्कर-भासुराभं हिरण्मयं हारि किरीटरत्नम्।
यकं जटा-मण्डल-मण्डितेन तेनाऽद्य भान्तौ मुदिरेण मूर्ध्ना।।२।।
अन्वयः- भास्कर-भासुराभम् हिरण्मयं हारि किरीटरत्नं यकं पर्यस्करोत्, जटामण्डल-मण्डितेन तेन मुदिरेण मूर्ध्ना अद्य भान्तौ।
शब्दार्थ -
पर्यस्करोत् = अंलकृत करना। भास्कर- भासुराभम्= सूर्य की किरणों की चमक (आभा) के समान। हिरण्मयम् = सुनहरी। हारि = आकर्षक। किरीटरत्नम् = स्वर्ण मुकुट। यकम् (यं) = जिसको। जटामण्डल मण्डितेन = जटाओं से सुशोभित। तेन = उससे मुदिरेण = बादल के समान (घनश्याम)। मूर्ध्ना = मूर्धानम् अर्थात् मस्तक या सिर।
हिन्दी व्याख्या-
सूर्य की आभा (कान्ति) से सम्पन्न और मनोहर, जिस स्वर्ण-मुकुट को उन्होंने जटामण्डल से मण्डित (सुशोभित), बादलों के समान श्याम वर्ण (घनश्याम) मस्तक पर धारण करके, उसे अलंकृत किया, उसी शिरः शोभा से सुशोभित होने वाले (नर और नारायण नामक दो ऋषिकुमारों पुत्रों को मूर्ति ने जन्म दिया।)
संस्कृत श्लोक - 3
कर्पूरगौरीं स्फटिकाक्षमालां करेण रक्तोत्पलविभ्रमेण।
नखांशुभिर्विच्छुरितां वहन्तौ साक्षात्तपःसिद्धिमिव स्फुरन्तीम्।।३
अन्वयः - रक्तोत्पलविभ्रमेण करेण कर्पूरगौरीं नखांशुभिर्विच्छुरितां स्फटिकाक्षमालां साक्षात् स्फुरन्तीं तपःसिद्धिम् इव वहन्तौ।
शब्दार्थ -
कर्पूर गौरीं = कपूर के समान श्वेत। स्फटिकाक्षमाला = स्फफटिक अक्ष माला। करेण= हाथ से। रक्तोत्पलविभ्रमेण= लाल कमल पुष्प की शोभा वाले। नखांशुभिः= नखों की किरणों से। विच्छुरितां = सुशोभित। साक्षात्तपःसिद्धिम्= तपस्या की प्रत्यक्ष सिद्धि के । इव = समान।
हिन्दी अर्थ -
रक्तकमलवर्णी दक्षिण कर से, नख किरणों से उद्भासित स्फटिक की अक्ष माला को वे ऐसा धारण कर रहे थे, मानो तपस्या की प्रत्यक्ष सिद्धि को धारण कर रहे हो।
संस्कृत श्लोक - 4
कमण्डलुं सम्भृततीर्थनीरमन्येन पद्माकरलालितेन।
प्राक्सञ्चितानां तपसामिवैकं निधानमाभासुरमादधानौ।।४
अन्वयः - पद्माकर-लालितेन अन्येन सम्भृत-तीर्थनीरं कमण्डलुं, प्राक्-सञ्चितानां तपसां एकं आभासुरं निधानं इव आदधानौ।
शब्दार्थ-
तीर्थनीर = तीर्थ का जल। सम्भृत = संचित। पद्माकरलालितेन= श्री से शोभित। प्राक् = पूर्व मेंः। संचितानां = संचित किये हुए। तपसामिवैकं = एक तपस्या के। निधानम् = निधि आभासु = प्रकाश के समान चमकीले। आदघनौ= धारण करते हुए।
हिन्दी अर्थ -
श्री से परिपुष्ट दूसरे हाथ से, पूर्व उपार्जित तपस्या के एक निधान के समान, संचित तीर्थजल वाले कमण्डलु को मानो धारण करते हुए....।
संस्कृत श्लोक - 5
यस्मिन्नरज्यन्त दिशो विलग्ना दृशो हि गोलोकसदां सदैव।
त्रैलोक्यलक्ष्मीनिलये वसानौ तस्मिञ्छरीरे रुरुचर्म शुष्कम्। ५
अन्वयः - गोलोकसदां दृशो त्रैलोक्यलक्ष्मीनिलये यस्मिन्न (शरीरे) दिशः विलग्नाः सदैव अरज्यन्त, तस्मिन् शरीरे शुष्कं रुरुचर्म वसानौ।
शब्दार्थ -
अरज्यन्त = अनुरक्त हुए। गोलोकसदाम् = गौ लोक अर्थात् दैव लोक के। सदैव = हमेशा। वसानौ = परिधान या वस्त्र। शुष्कं रुरुचर्म = शुष्क मृग छाला।
हिन्दी अर्थ -
अमर लोक निवासी देवताओं की दृष्टि भी दिशाओं को छोडकर जिनके त्रैलोक्य श्री-युक्त शरीर पर स्थिर हो जाती थी, ऐसी देह पर मृग की शुष्क छाला धारण करते हुऐ (दोनों ऋषिकुमार थे)।
संस्कृत श्लोक - 6
कर्चरपिङ्गेन दुकूलयुग्मेनाऽत्यर्थमेवाऽलमकारि याऽसौ।
तस्मिन् दधानौ जगदेकधीरौ कौपीनमापीनकटिप्रदेशे।।६
अन्वयः - योऽसौ कटि प्रदेशे कर्चूरपिंगेन दुकूलयुग्मेन अत्यर्थम् एव अलमकारि तस्मिन् आपीन (कटि प्रदेश) कौपीनं दधानौ (अतएव) जगदेकधीरौ..।
शब्दार्थ-
कर्चूरपिंगेन = हरताल के समान पीले। दूकूलयुग्मेन= क्षौम वस्त्रों के जोडें से। अलमकारि= अलंकृत। अपानी = जरा और मोटापा लिए हुए। कौपीनम् = आच्छादन हेतु अल्पमात्र। दधानौ = धारण किए हुए।
हिन्दी अर्थ -
जिस ईषत् पुष्ट कटिप्रदेश को पहले, हरिताल के समान रक्तपीत वर्ण के दुकूलों के जोड़े अतिशय अलंकृत करते थे, उस कटिप्रदेश पर संसार के वे अप्रतिम धीर पुरुष लँगोटी मात्र धारण करते थे।
संस्कृत श्लोक - 7
संल्लालयामास निधाय नित्यं यमिन्दिरेन्दीवर- सुन्दराभम्।
वक्षः स्थले दारवपादुकायामारोपयन्तौ तमुदारपादम्।।७
अन्वयः - इन्दिरा- इन्दीवर- सुन्दराभं यं नित्यं वक्षः स्थले निधाय संलालयामास तम् उदारपादं दारवपादुकायां आरोपयन्तौ...।
शब्दार्थ -
सँल्लायामास = संवाहित। इन्दिरा = लक्ष्मी। इन्दीवर = नील कमल। निधाय = स्थापित किये हुए। नित्य = हमेशा। दारव- पादुका = लकडी़ के खडाऊं। आरोपयन्तौ = पहने हुए (द्विवचन)।
हिन्दी अर्थ -
जिस नीलकमल के समान चरण को लक्ष्मी ने अपने वक्षःस्थल पर स्थान देकर संवाहित किया था, सुख-दुःख सहिष्णु उस चरण पर लकडी़ की पादुकाएं (खड़ाऊं) पहने हुए..
संस्कृत श्लोक - 8
विधित्सयाऽमानवमानमारादात्मानमाराध्य तपोभिरुग्रैः।
परोपकारैकरसैर्हि गण्यं सुखं नु दुःख किमिति ब्रुवन्तौ।।८
अन्वयः - रुग्रैः तपोभिः अमानवमानं आत्मानं आराध्य आरात् विधित्सया हि परोपकारे एकरसैः किं नु सुखं दुःखं गण्यं इति ब्रुवन्तौ...।
शब्दार्थ -
विधित्सा = करने कि इच्छा (विधान करने की इच्छा)। अमानवमान = अतिमानवीय आत्मा (जो मानव देह से ऊपर है)। ब्रुवन्तौ = कहने वाले।
हिन्दी अर्थ-
उग्र तप के द्वारा ज्ञानाधिकरण ब्रह्म की आराधना करके, शीघ्र ही दानव-दलन-रुप-देव कार्य की इच्छा से, परोपकार में तत्पर पुरुषों द्वारा सुख या दुःख की गिनती नहीं की जाती, ऐसे वचन कहने वाले (नर-नारायण से, उनकी मा बोली)
संस्कृत श्लोक - 9
तुप्तं तपो दुश्चरमार्षवृत्ती सम्प्रस्थितौ वीक्ष्य सुतौ विशालाम्।
माताऽब्रवीदवाष्पनिरुद्धकण्ठमुत्कण्ठया मोहविमुग्धबुद्धिः।।९
अन्वयः - अथ आर्षवृत्ती सुतौ दुश्चरं तपः तुप्तं विशालां सम्प्रस्थितौ वीक्ष्य मोहविमुग्धबुद्धिः माता उत्कण्ठया वाष्पनिरुद्धकण्ठं अब्रवीत।
शब्दार्थ-
आर्ष = ऋषि जनोचित या ऋषियों से सम्बंधित। सुतौ = दोनों पुत्र (नर-नारायण)। विशाला = बद्रीनाथ धाम का एक नाम। दुश्चर = अत्यंत कठिनाई से किये जाने योग्य। सम्प्रस्थितौ = प्रस्थान करने वाले। वीक्ष्य = देखकर। उत्कण्ठया = व्याकुलता से।
हिन्दी अर्थ-
उग्र तप करने के लिए बदरीधाम के प्रति प्रस्थान करने वाले, ऋषि- जनोचित आचार को अपनाये हुए, उन दोनों पुत्रों (नर-नारायण) को देखकर, स्नेह-विमूढ़-बुद्धि मा मूर्ति अश्रु-गद्गद कण्ठ होकर विकलता से बोली।
संस्कृत श्लोक - 10
वचो गुरुणां परिणामरम्यमारम्भसम्भावितभूरिभारम्।
तापापहं पेयमिवौषधं वो भिषक्तमानामनुवेलमेव।।१०
अन्वयः - आरम्भ सम्भावित भूरिभारं तापापहं परिणामरम्यं, गुरुणां वचो भिषक्तमानामनुवेलं एव औषधं वः पेयम्।
शब्दार्थ-
आरम्भसंभावितभरिभारं = प्रारम्भ में कठिन और भारी सा लगने वाला। परिणाम रम्य = परिणाम् में सुन्दर लगने वाला या सुख पहुँचाने वाला। भिषक्तम् = श्रेष्ठ वैद्य। अनुवेल = प्रतिक्षण या प्रत्येक वेला में।
हिन्दी अर्थ -
प्रारम्भ में कडवी एवं भारस्वरूप लगने वाली किन्तु, ताप विनाशक होने से परिणाम में सुखकर या सुख देने वाली, गुरुजनों की वाणी या वचनों का ऐसा पान किया जाना चाहिए, जैसे श्रेष्ठ वैद्यों के औषधि का यथा समय पान करते हैं।